आज़ादी के बाद आरंभिक नीतियाँ (1947–64): पुनर्वास और रियासतों का एकीकरण
Abstract
यह आलेख 1947–64 के आरम्भिक काल में भारत की नीतियों का समेकित विश्लेषण प्रस्तुत करता है, जिसमें दो केन्द्रीय प्रक्रियाएँ विस्थापित जनों का पुनर्वास और रियासतों का एकीकरण, नव-निर्मित राज्य की आधारशिला सिद्ध होती हैं। विभाजनोत्तर बड़े पैमाने पर हुए पलायन ने आवास, आजीविका, स्वास्थ्य तथा शिक्षा जैसी आवश्यकताओं के लिए त्वरित हस्तक्षेप को अनिवार्य बनाया। भूमि आवंटन, नहर आधारित बसावट, शहरी पुनर्वास बस्तियाँ, सहकारी ऋण, कौशल-विकास और केन्द्र–राज्य समन्वय जैसी व्यवस्थाएँ विकसित की गईं। समानान्तर, रियासतों को भारतीय संघ में लाने के लिए समझौते, परामर्श और आवश्यक होने पर सीमित सैन्य कार्रवाई की गई; जूनागढ़, हैदराबाद और जम्मू–कश्मीर जैसे मामलों ने इस प्रक्रिया की जटिलता और दृढ़ राजनीतिक नेतृत्व की भूमिका को उजागर किया। संवैधानिक निर्माण ने मौलिक अधिकार, संघीय संतुलन और उत्तरदायी संसदीय संचालन का ढाँचा प्रदान किया। योजनाबद्ध विकास के अंतर्गत प्रथम और द्वितीय पंचवर्षीय योजनाएँ, भूमि सुधार, सार्वजनिक उपक्रम, इस्पात तथा ऊर्जा जैसे मूलभूत क्षेत्रों का विस्तार और आधारभूत संरचना का निर्माण हुआ, जिससे आत्मनिर्भर आर्थिक व्यवस्था की दिशा स्पष्ट हुई। शिक्षा के सार्वभौमिकरण, अस्पृश्यता-उन्मूलन, महिला सशक्तिकरण और सामाजिक न्याय के उपायों ने समावेशन को गति दी। इस काल में चीन के साथ सशस्त्र संघर्ष तथा पाकिस्तान के साथ टकराव ने रक्षा-तंत्र, सीमाओं की देखरेख और वित्तीय प्राथमिकताओं का पुनर्संतुलन कराया, जिसके परिणामस्वरूप सैन्य आधुनिकीकरण और नीतिगत कठोरता बढ़ी। समग्रतः, यह कालखंड प्रशासनिक एकीकरण, सामाजिक समरसता और विकासोन्मुख अर्थनीति के त्रिकोण के माध्यम से आधुनिक भारतीय राज्य की बुनियाद रखता है, जिसकी विरासत आज भी नागरिकता, क्षेत्रीय संतुलन और शासन-प्रणाली के विमर्शों में परिलक्षित होती है।
मुख्य शब्द: विभाजनोत्तर पुनर्वास; रियासत–विलय; संवैधानिक निर्माण; पंचवर्षीय योजनाएँ; भूमि सुधार; सार्वजनिक उपक्रम; सीमा–रक्षा चुनौतियाँ।.